दीक्षा का प्रचलन भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है । इसके बाद ही व्यक्ति का दूसरा जन्म , अर्थार्थ ‘पुनर्जन्म ‘ होता है । अत्रि स्मृति में आया है कि मनुष्य का जन्म अज्ञानी के रूप में होता है और दीक्षा संस्कार द्वारा ही वह द्विज बनता है ( द्विज- जिसका दुबारा जन्म हो) ।
समय के सद्गुरु द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के बाद शिष्य में चमत्कारिक परिवर्तन होता है- चूंकि ब्रह्म दीक्षा देने की प्रक्रिया में ब्रह्म विद् गुरु, शिष्य के ह्रदय, त्रिकुटी और सहस्त्रार चक्र में अपना मन्त्र, दिव्यास्त्र, देवास्त्र, आरोपित कर सील कर देते हैं । साधक जैसे-जैसे साधना पथ पर विकास करता है, वैसे-वैसे ये बीज रूप में पड़ा मन्त्र अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित होकर ध्यान-समाधी के रूप में परिणत होता है। श्रद्धापूर्वक किया गए सुमिरन, सत्संग और सेवा से गुरुत्व रुपी पुष्प और समाधी रुपी फल शिष्य में प्रगट हो जाता है और दिव्यास्त्रों-देवस्त्रों द्वारा साधक कि नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक रूप लेने लगती है ।
ऊर्जा के संचय होने पर चक्रों को भेदती हुई कुंडलिनी शक्ति आत्म-पद को प्राप्त हो साधक को परम शांति का बोध कराती है । जिस आनंद की स्थिति को ना-ना प्रकार की योग-जप की विधियों से नहीं प्राप्त किया जा सकता, उसे समय के सद्गुरु, ब्रह्म-ज्ञानी महापुरुष द्वारा किये शक्तिपात से सहज ही अनुभव किया जा सकता है । द्विज बनने के बाद, शिष्य अपनी वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ करता है और आत्म-मोक्ष हेतु साधना करते हुए, गुरु कृपा-प्रसाद रुपी विवेक को ग्रहण कर अपने कार्यों का धर्मपूर्वक निर्वाह करने लगता है ।